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________________ १५२ जैन-प्रियाकोष। इहै धारना घरि व्रत पारी, दुर्षल करै कषाय जु सारी । के गुरुके उपदेशथकी जो, के असाम्य लखि रोग मती जो। मरन काळ जाने अब नीरे, तब कायरता परइन तीरे ७६। चउ बहार तजि च्यारि कषाया, तजि करि त्यागै च्यागी काया। सन सम्बन्ध सदै मति आवो, तनमें हमरौ नाहि सुभावौ ७७ सोरठा-कर्म संयोगे देह, उपज्यौ सो नर रहायगो । ताते यासौं नेह, करनौ सो अति कुमति है ।।७८॥ चौपाई-इहै भावना धारि विरागी, तजै कारिमा काय सभागी। सो श्रावक पावै शुभ लोका, षोड़श सुर्ग लहै सुखथोका ७६ नर है फिर मुनिके व्रत धार, सिद्ध लोकको शीघ्र निहारे । सल्लेखण सम व्रत न दूजा, इह सल्लेखण त्रिभुवन पूजा ८० सजि कषाय त्यागै बुध काया, सो सन्यास महा फलदाया। सल्लेखण संन्यास समाधी, अनसन एक अर्थ निरुपायो ८१ पंडित मरणा वीरिय मरणा, ये सब नाम कई जु सुमरणा। समरणते कुमरण सब नासे, अविनासी पद शीघ्र प्रकासै ८२ यह संन्यास न आतमघाता, कर्म विधाता है सुखदाता। अर जो शठ करि तीन कषाया, जलमें डूबि मरै भरमाया ८३ जीवत गडै भूमिमें कुमती, सो पावै दुरगति अति विमती । अगनि दाह ले अथवा विष करि, तजै मूढधी काया दुखकरि शस्त्र प्रहारि जो त्यागै प्राणा, अथवा झंपापात बखाणा । ए सब बातम पात बताये, इन करि बड़ भव भव भरमाये हिंसाके कारण ये पापा, हैं जु कषाय प्रदायक तापा। तिनको क्षीण पारिवौ भाई, सो संन्यास कहे जिनराई ।।
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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