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बारह व्रत वर्णन। नाहिं अनाहत तुरसे, देव दुंदुभी तूर । सरन तिनसे जे नरा, डारे मन मथ चर ॥६॥ वाहन नहीं विमानसे, फिरें गगनके माहि । नाहिं विमानजु ज्ञानसे जाकरि शिवपुर जाहिं॥ हीन दीन अति तुच्छ तन, नहिं निगोदिया तुल्य । सरवारथसिधि देवसे, भववासी नहिं कुल्य ।। दीरघ देह न मच्छसे, सरसर जोजन देह । चौइन्द्री नहिं भ्रमरसे जोजन एक गनेह ।। कानखजुऱ्यासे नहीं ते इन्द्री त्रय कोस । बेइन्द्री नहिं संखसे तन अढतालीस कोस । एकेन्द्री नहिं कमलसे, सहसर जोजन एक । सब परि करुणा राखिबौ, इह निज धर्म विवेक ।। घात न कनक समानसो, कोई लगे न जाहि । सोहु न चेतन घातसो, नहिं कबहूं बिनसाहि ।। पारससे पाषाण नहिं, लोहा कनक कराय । पारसनाथ समान कोऊ, पारस नाहिं कहाय ॥ ध्यावौ पारसप्रभु महा, बसै सदा जो पास। राशि सकल गुण रतनकी, काट कर्मजु पासि ।। चातुरमासिक सारिखे, उतपत जीवन आन । प्रती जतीसे नाहिं कोऊ, गमन तजें गुणवान ।। जिन कल्याणक क्षेत्रसे, और न तोरथ जान । तेहु न निज तीरथ जिमै, इह निश्चै कर मान ॥१०॥ निज तीरथ निज क्षेत्र है, असंख्यात परदेश।
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