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जैन-क्रियाकोष |
जिन धर्मी अति हित राखे, सो जिनमारग अमृत चले ॥ तुरत जात बछरा परि जैसे, गाय जीव देय है जैसे 1 साधर्मी पर तन धन बारे, गुनवतसल्य घरे अघ टारे ॥ मन बच काय करै वह ज्ञानी, जिनदासनिको दासा जानी । जिनमारगकी करें प्रभावन, भावे ज्ञानी व विधि भावन ॥६०॥ सब जीवनिमें मैत्रीभावा, गुणवंतनिक्कू लखि हरसाना । दुखी देखि करुणा उर आनें, लखि वापराता राग न छानें ॥ दोष नाहीं है मध्यस्था, ए चर भावन भावे स्वस्था । जित्याले चैत्य करावे, पूजा अर परतिष्ठा भावै ॥ तीरथजात्रा सूत्र जु भक्ती, चडबिधि संघसेव है युक्ती । ए है सप्त क्षेत्र परिसिद्धा, इनमे खरचं धन प्रतिबुद्धा ॥ जीरण चैत्यालयकी मरमती, -करवावे, पुस्तककी प्रति । साधर्मीकू बहु धन देवे, या विधि परभावन गुन लेवे ॥ कहे अङ्ग ए अष्ट प्रतक्षा, नहि धरवौ सोई मल लक्षा । इन अनि करि सीझै प्रानी, तिनको सुजस करें जिनवानी ॥ जीव अनन्त भये भवपारा, कौलग कहिगे नाम अपारा। कैयकके शुभ नाम बखानों, श्रुत अनुसार हिएमे आनो ॥ अंजन और अनंतमती जो, राव डढ़ायन कर्म हतीजो। रेवति राणी धर्म- गढासा, सेठ जिनेन्द्रभक्त अघ नासा ॥ पर औगुन ढाके जिह भाई, जिनवरकी आज्ञा उर लाई । वारिषेण ओ विष्णुकुमारा, वत्रकुमार भवाद्धि तारा अष्ट अङ्ग करि अष्ट प्रसिद्धा, और बहुत हुए नर सिद्धा । मठ मद त्यागि मष्ट मल त्यागा, तीन मूढ़ता त्यागि सभागा ॥