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________________ रसोई मादि क्रियाओंका वर्णन । ६ कले आपको आपहि माही, सो सम्यकदृष्टी शक नाही। ए दोय भेद कहै समकितके, ते धारौ कारण निज हितके ।। सम्यकदृष्टी जे गुण धारे, ते सुनि जे भव-भाव विडारे। मठ मद त्यागै निर्मद होई, मार्दव धर्म धरै गुन सोई॥ राजगर्व अरु कुलको गर्वा, जाति मान बल मान जु सर्वा । रूप तनूमद तपको माना, संपत्ति अर विद्या अभिमाना। ए आठो मद कबहु न धार, जगमाया तृण-तुल्य निहारे। अपनी निधि लखि अतुल अनन्ती, जो पर-पंचनमे न बसंती ।। अविनश्वर सत्ता विकसंती, ज्ञान-गोत्तम शु ति उलसंती। तामे मगन रहै अति रङ्गा, भव-माया जाने क्षण भंगा ।। तीन मूढता दूरी नाखै, देव धर्म गुरु निश्चै राखे । कुगुरु कुदेव कुधर्म न पूजा, जैन बिना मत गहै न दूजा ।। छह जु अनायतनी बुधि त्यागै,त्याग मिथ्यामत जिनमत लागे। मुगुरु कुदेव कुधर्म बडाई, अर उनके दासनिकी भाई ।। कबहुं कर नहिं सम्यकदृष्टी, जे करिहैं ते मिथ्यादृष्टी। शंका आदि आठ मळ भाडै, करि परपञ्च न आयौ छाड़े। जिनवचमें शंका नहिं ल्यावै, जिनवाणी उर धरि दिढ़ भावै । नगकी बाछा सब छिटकावे, निसप्रह भाव अचल ठहरावै॥ जिनके अशुभ उदै दुख पीरा, तिनकी पीर हर वर वीरा। नाहिं गलानि धरै मन माहीं, साची दृष्टि धरै शक नाही। कबहूं परको दोष न भाखै, पर उपगार दृष्टि नित राखे । अपनों अथवा परको चित्ता, चल्यौ देखि यांमै गुणरत्ता । थिरीकरण समकितको अंगा, धारै समकित धार अभङ्गा ।
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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