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बारह प्रत वर्णन। प्रवकी रीति सुनों मनलाये, जाकरि चेतन सरख लखाये। सममि तेरसि धारन धारे, करि जिनपूजा पातिग टारे ॥४॥ एकमुक्त करि दो पहरांते, तजि मारम्म रहै एकांते । नहिं ममता देहादिक सेती, धरि समता बहु गुणहि समेती ॥५॥ चउ माहार चड विकथा टारे, पड कषाय सजि समता पारे। घरमी ध्यानारुढ़मती सो जगत उदास शुद्धवरती सो ॥६॥ स्त्री पशु पंट बालकी संगति, तजि करि उरमें धारै सनमति। जिनमन्दिर अथवा बन उपवन, तथा मसानभूमिमें इक सन 11 अथवा और ठौर एकान्ता, भजे एक चिद्रप महंता। सर्व पाप जोगनिते न्यारा, सर्व भोग तजि पोसह पारा ॥८॥ मन वच काय गुप्ति धरि ज्ञानी, परमातम सुमरे निरमानी। या विधि धारण दिन करि पुरा, संध्या करै सांझकी सुरा ॥ सुचि संधारे रात्रि गुमावे, निद्राको लवलेश न मावे । के अपनो निजरूप वितारै, के जिनवर चरणा चित धार ।१० के जिनबिम्ब निरखई मनमें, भूल न ममता धरई तनमें । अथवा मोकार अपारा, जपै निरंतर धीरज धारा ॥ ११॥ नमोकार ध्यावे वर मित्रा, भयो भर्मते रहित स्वतंत्रा। जगविरक्त जिनमत आसक्तो,सकल मित्र जिनपति अनुरक्तो १२ कर्म शुमाशुभको जु विपाका, ताहि विचारै नाय क्षमाका । निजको जानै सवतें मिन्ना, गुण-गुणिको माने जुअमिन्ना१३ इम चितवनतें परम सुखी जो, भववासिन सो नाहि दुखी जो। पंच परमपदको मति दासा, इन्द्रादिक पढ़ते हु उदासा ॥१४॥ रात्रिधारनाकी या विषिसों, पूरी कर भरवो व्रतनिधिसों।