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________________ बारह प्रत वर्णन। गुणसूत काहे जु कहाये, ताको अर्थ सुनों मनाये ॥५६॥ पंच अणुस्तकों गुणकारी, सातें गुणत नाम सु धारी। जैसें नप्रतनें है कोटा, तैसें बूत रक्षक ए मोटा non क्षेत्रनि होय बाडि ओ जैस, पंचनिके ए तीन तैसें। अब सुनि घड शिक्षाबूत मित्रा, जिन करि हो मष्ट पवित्रा । अष्टनिकों संख्या दायक ए, ज्ञानमूल तप खूत नायकए। नवमो चूत पहिलो शिक्षाबूत, चित्त धीर धर धारहु अणुव्रत ॥६॥ सामायक है नाम जुताको, धारन करत सुधीजन याकों। सामायक शिवदायक होई, या सम नाहि क्रिया निधि कोई ॥६॥ दोहा-प्रथम हि सातों सुद्धता, भासो श्रुत अनुसार । जिन करि सामायक विमल,-होय महा अविकार ।। ६४॥ क्षेत्र काल आसन विनय, मन बच काय गनेछ । सामायककी शुद्धता, सात चित्त धरि लेहु ॥ ६ ॥ जहा शब्द कलकल नहीं, बहुजनको न मिलाप । दंसादिक प्राणी नहीं, ता क्षेत्र करि जाप ।। ६६ ।। क्षेत्र शुद्धता इह कही, अब सुनि काल विशुद्धि । प्रात दुपहरा साझको, करै सदा सदबुद्धि ।। ६७ ॥ षट षट घटिका जो करें, सो उतकिष्टी रीति । चउचउ घटिका मध्य है, करें शुद्धि धरि प्रीति ॥ ६८॥ द्वैघटिका अधनि है, जेतो थिरता होइ । तेतो बेला योग्य है, या सम और न कोई ॥६६॥ घरै सुधी एकाग्रता, मन लाथै जिनमाहि। यहै शुद्धता कालकी समै उलंधे नाहिं ॥ ७० ॥
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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