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जैन-क्रियाकोष। कामोद्दीपक कुकथा जोई, ताहि सजे वुधजन है सोई। कौतकुत्य है दोष द्वितीया, ताको त्याग प्रतनिने कीया val बदन मोरिवौ बाकी करिवौ, भौंह नचैवौ मच्छर परिवौ। नयनादिकको जो हि चलावी, विषयादिकमें मन भटकावौ ॥१६ इत्यादिकजे भंडिम बातें, वजौ व्रती जे सुव्रत घा! कौतकुच्यको अर्थ बखानो, फुनि सुनि तीजा दोष प्रवानों ॥५०॥ भोगानर्थक है अति पापा, जाकरि पइये दुर्गति तापा। ताकों सदा सर्वदा त्यागौ, श्री जिनवरके मारग लागौ ॥५१॥ बहुत मोलदे भोगुपभोगा, सेवै सो पावै दुख रोगा। भोगुपभोगथकी यह प्रीति, सो जानों अधिकी विपरीती ॥५२॥ बहुरि भूखतें अधिको भोजन, जल पीवौ जो विनहि प्रयोजन । शक्ति नहीं अह नारी सेवौ, करि उपाय मधुन उपजेवो ॥५३॥ वृथा फूल फल पानादिक जे, बाधा करै लहै शठ अघ जे । इत्यादिक जे भोगै अर्था, जो सेवौ सो लहै अनर्था ॥५४॥ है मौखर्य चतुर्था दोषा, ताहि तजे श्रावक बूतपोषा । जो बाचालपनाको भावा, सो मौखय कहैं मुनिरावा ॥५५॥ बिना विचारयौ अधिको बकिबो, झूठे वाकजालमें छकिवौ । असमीक्षित अधिकर्ण जु बोरा, अतोचार पंचम तजि धीरा ॥५६॥ बिन देख्यो विन पूछ्यौ कोई, घट्टी मूसल उखली जोई। कछु भी उपकरणा बिन देख्या, बिन पूंछया गृहिवौ न असेखा५७ तब हिंसा टरिहै परवीना, हिंसातुल्य अनर्थ न लीना। ए सब अष्टम व्रतके दोषा, करै जु पापी व्रतको सोखा ।। ५८॥ इन तजिसी व्रत निर्मल होई, ताने तजै धन्य है सोई।