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जैन-क्रियाकोष । तीजी आसन शुद्धता, ताको सुनहु विचार । पल्यंकासन धारिके, ध्यावै त्रिभुवन सार ।। ७१ ॥ अथवा काऊसर्ग करि, सामायक करतव्य । सजि इन्द्रियब्यापार सहु, है निश्चल जन भव्य ।। ७२॥ विने शुद्धता है भया, चौथी जिनश्रुति माहि । जिनक्चमें एकाग्रता, और विकल्पा नाहिं ।। ७३ ॥ हाथ जोडि आधीन है, शिर नवाय दे ढोक। तन मन करि दासा भयौ, सुमरै प्रभु तजि शोक ।। ७४ ।। विनय समान न धर्म कोउ, सामायकको मूल । अब सुन मनकी शुद्धता, हे व्रतसो अनुकूल ।। ७५ ॥ मन लावै जिनरूपसो, अथवा जिन पद माहिं । सो मन शुद्धि जु पञ्चमो, यामें संसै नाहिं ।। ७६ ।। छट्ठी वचन विशुद्धता, बिन सामायक और । बबन कदापि न बोलिये, यह भाषे जगमौर ।। ७७ ॥ काय शुद्धता सातमी, ताको सुनहु विचार । काय कुचेष्टा नहिं करै, हस्तपदादिक सार ।। ७८ ।। क्षेत्र प्रमाण कियो जिनें, तजे पापके जोग। मुनि मम निश्चल होयक, करै जाप भविलोग ।।७६ || राग दोषके त्यागते, समता सब परि होइ । ममताको परिहार जो. सामायक है सोइ ॥८॥ सामायक अहनिसि करें, ते पावे भवपार । सामायक सम दूसरो, और न जगमे सार ।। ८१ ।। रानि दिवम करनो उचित, बहु धिरता नहिं होय ।