________________
१३६
जैन-क्रियाकोष ।
आपकी शुद्धता, जानें निज पर मेद ॥ ६॥ सेवा जोग्य सुपात्र ए. कहे जिनागम माहिं । भक्ति सहित जे दान दें, ते भवभ्रांति नसाहिं ॥६७॥ त्रिविव पात्रके भेद नव, कहे सूत्र परवान । मुनिको नवधा भक्ति करि, देहि दान बुघिमान विधिपूर्वक शुभ वस्तुकों, स्वपर अनुग्रह हेत । पातरकों दान जु करें, सो शिवपुरको लेत ॥६॥ नवधा भक्ति ज कोनसी, सो सुनि सूत्र प्रवानि | मिथ्या मारग छाडि करि, निज श्रद्धा डर अनि ॥१००॥ आवौ व्यावौ शबद कहि तिष्ट तिष्ट भासेहि ।
सो संग्रह जानों बुधा, अघ -संग्रह टारेहि ॥१॥ ॐ चौ आसन देय शुभ, पात्रनिकों परवीन । पग धोवै अर बहुरि, होय बहुत आधीन ॥२॥ करें प्रणाम विनै करी, त्रिकरण शुद्धि घरेहि । खानपानकी शुद्धता, ये नव भक्ति करेहि ||३|| सुनों सात गुण पंडिता, दातारनिके जेह । घारे धरमी धीर नर, उधर भवजल तेह ||४|| इह भव फल चाह नहीं, क्रियावान अति होय । कपट रहित ईर्षा रहित, घरै विषाद न सोय ॥५॥ हुई उदारता गुण सहित, अहंकार नहिं जानि । ए दाताके सप्त गुण, कहे सूत्र परवानि ॥६॥ श्रद्धा घरि निज शक्तिज त, लोभ रहित है धीर । दया क्षमा दृढ़ चित्त करि, देय अन्न भर नीर ॥७॥