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बारह प्रत वर्णन |
रागदोष मद भोग भय, निद्रा मन्मथवीर | उपजावै जु, असंजमा, सो देवौ नहिं वीर ॥ यह आज्ञा जिनराजकी, तप स्वाध्याय सु ध्यान । बुद्धिकरण देवौ सदा, जाकरि लहिये ज्ञान ॥ धा मोक्ष कारणा जे गुणा, पात्र गुणनके धीर । तातें पात्र पुनीत ए, भाषें श्रीजिनवीर ॥१०॥ संविभाग अतिथीनको, व्रत बारमों सोइ । दया तनों कारण इहै, हिंसा नाशक होइ ||११|| हिंसाके कारण महा लोभ अजसकी खानि । दान करे नासै भया, इह निश्चै डर मनि ||१२|| भोग रहित निज जोग धरि, परमेसुरके लोग। जिनके दर्शन मात्र हो, मिटै सफल दुख सोग ॥१३॥ मधुकर वृति धारें मुनी, पर पीडा न करेय । पुन्यजोग आवै धरें, जिन माझा ज धरेय ॥१४॥ तिनकों जो सु अद्दार दे, सा सम और न कोई । दानधर्मतें रहित हो, किरपण कहिये सोइ ॥ १५॥ कियौ आपने अर्थ जो, सो ही भोजन भ्रात । मुनिकों अरति विषाद तजि, सो भवपार लहात ||१६|| शिथिल कियौ सिंह लोभको, परम पंथके हेत । तेई पात्रनिकों सदा, विधि करि दान जु देव ॥१७॥ सम्यकदृष्टी दान करि, पावै पुर निरवान । अथवा भव धरनों पर, तौ पावै सुरथान ॥१८॥ बिन सम्यक्त जु दान दे, त्रिविधि पात्रको जोहि ।
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