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जन-क्रियाकोष |
पावै इन्द्री भोग सुख, भोगभूमिमें सोहि ॥११॥ उत्तम पात्र सु दानतें, भोगभूमि उतकिष्ट । पावै दशधा करूपतरु, जहा न एक अनिष्ट ॥२०,, मध्य पात्र दान करि, मध्य भोगभू माहिं । raft पात्रके दान करि, अधनि भोगभू जाहिं ॥२१॥ पात्रदानको फल इहै, भाषें गणधरदेव ।
धन्य धन्य जो जगतमें, करें पात्रको सेव ॥२२॥
छन्द वाल
देने औषध सु महारा देने श्रुत पाप प्रहारा । रहनेको देनी ठौरा करने अति ही जु, निहौरा ॥२३॥ हरने उपसर्ग तिनूंके, घरने गुण चित्त जिनू के । सुख साता देनी भाई, सेवा करनी मन लाई ||२४|| ए नवबिधि पात्र जु, भाखे, आगम अध्यातम साखे । बहुरि त्रय भेद कुपात्रा, धारे वाहिज व्रतमात्रा ||२५|| जे शुभ किरिया करि युक्ता, जिनके नहिं रीति अयुक्ता । सम्यक दर्शन बिन साधू, तप संयम शील अराघू ॥२६॥ पावे नहिं भवजल पाग, जावे सुरलोक विचारा । पहुंचे नव ग्रीब लगे भी, जिनतै अघकर्म भर्गे भी ॥२१॥ पण भावलिंग विनु भाई, मिथ्यादृष्टी हि कहाई । द्रविलिंगिधार जति जेई, उतकिष्ट कुपात्रा तेई ||२८|| जे सम्यक बिन अणुव्रत्ती, द्रवि श्रावकत्रत प्रवृत्ती । ते मध्य कुपात्र बखानें, गुरुने नहि श्रावक मानें ॥ २६ ॥ आपा पर परच नाहीं, गनिये बहिरातम माहीं ।