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जैन-क्रियाकोष ।
दुरनयपक्षी सारिखे नाहिं कुपक्षी आन । दैत्य न निरदयभावसे तिमर न मोह समान ॥ मद उनमाद गयदसो, और न बनगज कोइ । कूरभावसो सिंह नहिं, ठग न मदनसो होइ ॥ ४० ॥
अजगर अज्ञानसो, प्रसें जगतको जोइ । न रक्षक निजध्यानमो, काल हरण है सोइ ॥ थिर घरसे (१) नहिं वनचरा, बसे सदा भव माहिं । नहिं कंटक क्रोधादिसे, दया तिनूमें नाहिं || विष पहुप न विषयादिसे, रहै कुंवासन पूरि । नाहिं कुपुत्र कुसूत्रसे, ते या वनमें भूरि ॥ पंथ न पात्रे जगतमे, मुकति तनों जग जंत । कोइक पावै ज्ञान निज, सोई लहै भव अंत ॥ नहि सेरी जिनबानिसी, दरसक गुरुसे नाहिं । नगर नहीं निरवाणसो, जहा संतही जाहिं ॥ नहिं समुद्र ससारमो, अति गंभीर अपार । लहर न विषैतरंगसी मच्छ न जमसा भार ॥ भ्रमण न चहूगति भ्रमणसो, भरमे जीव व्यपार । पौन न मुनिश्रतसो महा, करे भवोदधि पार ॥ द्वीप नहीं शिवद्वीपमो, गुन रतननकी रासि । तीरथनाथ जिनंदसे, सारथवाह न भासि ॥ अधकूप नहि जगतमो परै तहा तनधार । जिन विन काढे कौन जन, करिकै करुणा सार ॥ नाहिं भवानल सारिखी, दावानल जग माहिं ।