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बारह व्रत वर्णन |
जगतन्वरावर भस्म कर, यामें संशय नाहिं ॥५०॥ जिनगुण अंबुधि शरण ले, ताहि न याको ताप । तातें सकल विलाप तजि, सेवौ व्यप निषाप ॥ नहीं वायु अगवायुसी, जगत उड़ावै जोय । काय टापरी बापरी, यापै टिके न कोय ॥ जिनपद परवत आसरा, जो नर पकरे माय । सोई यामे ऊबरें, और न कोई उपाय | नाहिं अतिंद्री सुक्खसो, पूरण मरमानंद । नाहिं अफंद मुनिंद्रसो, आनंदी निरदुन्द ॥ नहिं दिक्षा दुखहारिणी, जिनदिक्षासी कोय । नहिं शिक्षा सुख कारिणी, जिनशिक्षासी होय ॥ चाल जोगीरासा ।
फंद न कनककामिनी सरिखा, मृग नहिं मूरख नरसा । नाहिं अहेरी काम लोभसा, सूर न अंध सु नरसा ॥ काटत फंद न बोधवत्तसा, मंदमती न अभविसा । बुद्धिवंत नहिं भव्यजीवसा, भव्य न तद्भव शिवसा ॥ पुरुष सलाका महाभागसे, तथा चरम तन धरसे । और न जानों पुरुष प्रवीना, गुरु नहिं तीर्थकरसे ॥ ते पहली भाषें गुणवंता, अब सुनि देवस्वरूपा । इन्द्र तथा अहिमिन्द्र इन्द्र न घट इन्द्रनिसे कोई सौधर्म
सरीखे और न
देव अनूपा ॥
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सनतकुमार !
झेन्द्र जु भर लान्तव इन्द्रा, मानत आारण सारा ॥ प एका भवतारी भाई नर डाॅ शिवपुर देवें ।