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जैन-क्रियाकोष।
सम्यकदृष्टी इन्द सबै ही, श्रीजिनमारग सेर्वे ॥ लोकपालहू सन्यकदृष्टी, इकभव धरि भवपारा। इन्द्र सारिखे सुर ये सोहै, इनसे देव न सारा॥
देवरिषी लौकातिक देवा, तिनसे इन्द्रहु नाही। ब्रह्मचर्य धारत ए देवा,इनसे भुवन न माही ॥ सप कल्याणक समये सेवा,-करें जिनेसुरकीये । नर ह्र पावें पद निरवाना, राखें जिनमत हीये ॥ इंद्राणीसी देवी नाही इन्द्राणी न शचीसी। इक भघ धरि पावै सुखबासा नीर्थकर जननीसी ॥६॥ सेवक देव जिनेसुरजूके, नाहिं सुरेसुर तुल्या । शची मारिखी भक्त न कोई,धारे भाव अतुल्या । कल्याणक ए पाचू पुजें, शची शक्र जिनदासा ।
अहनिमि जिनवर चरचा इनके, धारे अतुल विलासा ॥ दोहा-अब सुनि अहमिंद्रा महा, स्वर्ग ऊपरै जेहि ।
नव श्रीवक नव अनुदिमा, पंचानुत्तर लेहि ।। तेईसौं शुभ थान ए, तिनमें चौदा सार । नव अनुदिश पंचोत्तरा, ये पावे भवपार ॥ सम्यकदृष्टी देव ए, चौदहथान निवास । चौदहमे नहिं पंच से, महा सुखनकी रास ॥ पंचनिमे सरवारथी-सिद्ध नाम है थान। सफल स्वर्गको सीस जो ता सम लोक न आन॥ एकाभवतारी महा, सरवारथसिधि बास । तिनसे देव न इन्द्र कोड, अहमिद्रा न प्रकाश ॥