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बारह व्रत वर्णन |
कहे देवमें सार ए, तैसे ब्रतमे सार । शील समान न गुरु कहें, शील देय भवपार || देव माहिं जे समकिती, देव देव हैं जेहि । देव माहिं मिया मती, पशुतें मूरख तेहि ॥ नारकमे जे समकिती, तिनसे देव न जांनि । तिरजचनिमे श्राविका, तिनसे मिनष न मानि ॥ मिनपनमे जे अब्रती, अज्ञानी मतिमन्द । तिनसे तिरजचा नहीं, सेवें विषय सुछन्द ॥ ७० ॥ मिनपनि माह मुनिन्द्रजे, महाव्रती गुणवान । तिनसे अहमिन्द्रा नही, ताको सुनहु बखान ॥ थावर नहि क्रमिकीटसे, ते सकलिन्द्रीसे न । पंन्द्री नहिं नरनसे, नर जु नरेन्द्र जिसे न ॥ महामंडलिकसेन नृप, ते अधचक्री सेन । अचक्री नहि चक्रिसे, ज्ञानवान गण सेन ॥ नाहिं गणेन्द्र जिनेन्द्रसे जे सबके गुरुदेव । इन्द्र फणिन्द्र नरेन्द्र मुनि, करें सुरासुर सेव ॥ ते जिनेन्द्र हू वप सर्वे करे सिद्धक ध्यान । सिद्धनिसो संसारमे, नाहिं दूसरो आन ॥ सिद्धनिमो यह आत्मा, निश्चय नय करि होय ॥ सिद्धलोक दायक महा, नहीं सीलसो कोय । भूमि न अष्टम भूमिसी, सर्व भूमिके शीश । कर्म भूमितें पावही, अष्टम भूमि सुनीश ॥ दीप अढ़ाईसे नहीं, असंख्यात ही द्वीप ।