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बारह व्रत वणन।
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तिनसे मूढ न लोकमें, इह भायें जिनचंद ॥ वृद्ध भये हू गेहको, जे न तजे मतिहीन । तिनसे गृद्ध न जगतमे, कापुरुषा न मलीन । गेह सजें नववर्षके, धरें महाव्रत सार । तिनसे पृज्य न लोकमे, ते गुणवृद्ध अपार ।। नहिं बैरागी जीक्से, निरबंधन निरुपाधि । नहीं जु रोगी सारिखे धारक आघि रु व्याधि ॥३०॥ निजरस आस्वादन विमुख, भुगतें इन्द्रीभोग। नरकबासना ते लहैं, तिनसे नाहिं अजोग । अभविनिसे न मभागिया,भव्यनिसे न सभाग। निकटभव्यसे भव्य नहिं, गहें ज्ञान वैराग ॥ नहिं दरिद्र दुरखुद्धिसो दलदर सो न दुकाल । नहिं संपति सनमति जिसी,नहीं मोह सो जाल। नहीं समीसे संयमी, तसा नाहिं विधान । नहिं प्रधान निजबोधसो,निज निधिसो न निधान ।। कोष न गुणभडारसो, सदा अटूट अपार । औगुनसो नहिं गुणहरा,भव भव दुखदातार ।। खल स्वभावसो औगुन न,गुण न सुजनता तुल्य । सत्य पुरुष निरवेरसे, जिनके एक न शल्य ।। खलजन दुरजन सारिखे और दूसरे नाहिं । भवबन सो वन नाहिं कौ भ्रमै मूढ जा माहि॥ विषवृक्ष न वसुकर्मसे, नानाफल दुखदाय । बेलि न मायाजालसी अगजन जहा फसाय ॥