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जैन-क्रियाकोष |
अथवा हो भाविक शुद्धा, व्रतधारक शील प्रवृद्धा । जो ब्रह्मचारिणी बाला, आजनम शील गुण माला ॥५१॥ सो मध्यम पात्रा मध्या, जानों व्रत शील अवध्या । अथवा निजपतिको त्यागै, सो वृह्मचर्य अनुराग ॥५२॥ सो परमश्राविका भाई, मध्यनिमे मध्य कहाई ।
इनको जो देय अहारा मो ह्वै भवसागर पारा ॥५३॥ दोहा - अन्न वस्त्र जल औषधी, पुस्तक उपकरणादि ।
धान नान दान जु करें ते भव तिरे अनादि ॥५४॥ हरे सकल उपसर्ग जे, ते निरुपद्रव होहिं । सुरनर पति है मोक्षमें, राजे अति सुखसो हि ॥५५॥ छन्द चाल ।
जा दामी पडिमा धारा, श्रावक सु विवेकी चारा । जग धंधाको नहिं लेसा, नहिं धंधाको उपदेशा ||५६|| नमे हु रहे वर वीरा, ग्रामे हु रहै गुणधीरा ।
आवै पावक घरि जीवा, नहि कनकादिक कछु छींवा १५ एका दशमीतें छोटे, परि और सकलतें मोटें । जिनबानी बिन नहिं बोले, जे कितहू चिन्त न डोलें ॥५८॥ मुनिवरके तुल्य महानर, दशमी एकादशमी धर । एकादशमी द्व भेदा, एलिक छुल्लक अघछेदा ॥५६॥ इनसे नहि श्रावक कोई, सबमे उत किष्ट होई । त्यागौ जिन जगत असारा, लाग्यौ जिन रंग अपारा ॥६०॥ पायौ जिनराज सुधर्मा, छाड़े मिथ्यात अधर्मा ।
जिनके पंचम गुणठाणा, पूरणतारूप विधाना ||६१ ||