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________________ १३१ बारह व्रत बण् न । लख्यौ आपनों तत्व जिन, नहिं मायासों मोह।। तजै राग दोषादि सब, काम क्रोध पर द्रोह ॥ ४०॥ कछु इक धनको लेस है, तातें घरमे वास । जे इनकी सेवा करें, ते पाबे सुखरास ॥४१॥ अब सुनि अष्टम पडिमा ए, त्रस थावर जीवदया ए। कछु ही धघा नहि करनों, आरम्भ सबै परिहरनो ॥४२॥ भजनों जिनको जगदीमा, तजनो जगजाल गरीसा। तनसो नहिं स्वामित धरनो, हिंसासो अतिही डरनों ॥४३ श्रावकके भोजन करई, नवमी सम चेष्टा धरई। नवमीतें एतो अन्तर, ए है कछुयक परिग्रह धर ॥४४॥ वन माहीं थोरो रहनो, शीतोष्ण जु थोरो सहनों। जे नवमी पडिमावंता, जगके त्यागी विकमता ॥४॥ जिन धातु मात्र मब नाखे, कपडा कछुयक ही राखे । श्रावक्के भोजन भाई, नहिं माया मोह धराई ॥४६॥ आवै जु बुलाये जीवा, जिनको नहिं माया छीवा । है दशमीते का नूना, परिकीय कर्म अब चुना ॥४७॥ एतो ही अंतर उनते, कबहुक लौकिक बचनननें। बोलें परि विरकतभावा, धनको नहिं लेश धरावा ॥४८॥ आतेकों आरुकारा, जातें सो हल भल धारा। दसमीते अतिहि उदासा, नहिं लौकिक वचन प्रकाशा ॥४ सप्तम अष्टम अर नवमा, ए मध्य सरावग पडिमा । मध्यनिमें मध्य जु पात्रा, व्रत शील ज्ञान गुण गात्रा ॥५०॥
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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