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रसोई आदि क्रियाओंका वर्णन। अस्थि चर्म रोमादि मल, मिनख बेचवौ नाहिं । बन्दिपकड़नी नाहि कछु, इह आज्ञा श्रुतिमाहिं ।। पशु-भाड़े मति चौ मया, त्यागि शस्त्र व्यापार । बध बंधन विवहार तजि जो चाहो भवपार ।। जहा निरन्तर अगिनिको, उपजे पापारम्भ । सब न्यौहार तजौ सुधी, तजौ लोभथल दम्भ ॥ कन्दोई लोहार अति, सुवर्णकार शिल्पादि। सिकलोगर बाटीप्रमुख, अवर लोरा आदि । छीपी रङ्गराषिका, अथवा कुम्भजुकार । ब्रत धारि नर नहिं करे उद्यम हिंसाकार ॥ रग्यो नीलथकी जिको, जो कपरा तजि बीर । अनि हिमा कर नीपनों, है अजोगि वह चीर ॥ कूप तडाग न मोखिये, करिये नहिं अनर्थ । हिंसक जीव न पालिये, यह धारौ श्रुति अर्थ ॥ ६ ॥ विष न विणजवौ है भला, रसा बिणजके माहि । बिणज करौ तो रतनको, के कंचन रूपादि । के रूई कपडा तनों, मति खोवौ भवबादि । जिनमें हिंसा अल्प है, ते व्यापार करेय ॥ अति हिंसाके बिजणजे, ते सबही सज देय । ए सब रीति कही बुधा, मूल गुणनिमें लीक ।। ते धारौ सरपा करी, त्यागौ बात अलीक। जैसे तरुके जड गिनी, अह मन्दिरके नींव ।। तैसें ए सब मल गुण तप जप व्रतकी सीम।