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जैन-क्रियाकोप। इनहीं मूलगुणानिकों, परिवारो गनि लेह ॥ लज्जा दया प्रमासता, जिनमारग परतीति । पर औगुनको ढाकिबो, पर उपगार सुरीति ।। सोमदृष्टि गुणगृहणता, अर गरिष्ठता जानि । सबसों मित्राई सदा, बैरभाव नहिं मानि ॥ पक्ष पुनीत पुमानकी, दीरघदरसी सोय । मिष्ट बचन बोले सदा, अर बहुज्ञाता होय ॥ अति रसज्ञ धर्मज्ञ जो, है कृतज्ञ फुनि तज्ञ । कहै तज्ञ जाकू दुधा, जो होवै तत्वज्ञ ॥ नहीं दीनता भाव कछु नहिं अभिमान धरेय । सबमों समता भाव है, गुणको बिनो करेय ॥ पाप क्रिया सब परिहरौ, ए गुण होय इकोस । इनको धारे सो सुधी, लहै धर्म जगदीश ।। इन गुण बाहिर जीव जो, श्रावक नाहिं गनेय । श्रावक प्रतके मूलये, श्रीजिनराज कहेय ।। श्रावक ब्रत सब जातिको, जतिव्रत, द्विज, नृपवानि । और जाति नहिं है जती, इह जिन आज्ञा जानि ॥५०॥ अर एते बिणज न करे, श्रावक प्रतिमा धार। धान पान मिष्टान्न अर, मोम हींग हरतार ।। मादिक लवण जु तेल घृत, लोह लाख लकड़ादि। दल फल कन्दादिक सबै, फूल फूल सीसादि । चीट चाबका जेबड़ा, मूज डाम सिण आदि। पसु पंखी नहिं बिणजवो, सावन मधु नीलादि ।