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________________ रसोई मादि क्रियाओंका वर्णन । दुर्बोधनके हठ थकी, एक बार ही छत रमिकर अति आपद लही, जात्यौ कौरवधूत ॥ हारि गये पांडव प्रगट, राज सम्पदा मान । दुखो भये जो दीन जन, प्रन्थनि माहिं बखान । पीछे सब तजि जगतकों, अगदीश्वर उरध्याय ।। श्रीजिनवरके लोककों, गये जुधिष्ठिर राय ॥ मास भखनतें बक नृपति, गये सातवें नर्क । तीस तीन सागर महा पायौ दुख संपर्क ।। अमल थकी जदुनन्दना, रिषिको रिस उपजाय । भये भस्मभावा सबै, पाप करम फल पाय ॥ कैकय उबरे जिनजती भये मुनीसुर जेह । येह कथा जिन सूत्रमे, तुम परहट सुन लेह ।। चारुदत्त इक सेठ हौ, करि गनिकासों प्रीति । लही आपदा जिह घनी गई सम्पदा बीति ॥ ब्रह्मदत्त पापी महा, राजा हौं मृग मार । आखेटक र पराघतें, बूडयौ नरक मंझार ।। चोरी करि शिवभूति शठ, लहै बहुत दुख दोष । साकी कथा प्रसिद्ध है, कहिलेको सत घोष ॥ परदारा पर चित धरी, रावणसे बलवन्त । अपजस लहि दुरगति गये, जे प्रतिहरि गुणवन्त ॥४०॥ बिसन बुरे बिसनी बुरे, सजौं इनोंते प्रीति । व्रत क्रियाके शत्रु ये, इनमे एक न नीति ।। अब सुनि भैया बात इक, गुण इकबीसा जेह ।
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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