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जैन-क्रियाकोष। जा थानकसों केवली, पहुंचे पुर निर्वाण । बंदो थान पुनीत जो, जा सम थानन आन । तीर्थकर भगवानके, बंदो पंच कल्याण ।
और केवलीको नमों, केवल अर निर्वाण ॥ नमों उभैविधि धर्मको, सुनि श्रावक निरधार। धर्म मुनिनको मोक्ष दे, काटै कर्म अपार ॥ तातें मुनि मत अति प्रबल, बार बार थुति योग । भन्य धन्य मुनिराज ते, तजें समस्त अजोग। पर परणति जे परिहरें, रमें ध्यानमें घोर । ते यमकू निज दास करि, हरो महा भव पीर ॥ मुनिकी क्रिया विलोकिकै, हम बरनि न जाय । लौकिक क्रिया गृहस्थकी, बरनू मुनि गुण ध्याय । यतिब्रत ज्ञान बिना नहीं, श्रावक ज्ञान बिना न । बुद्धिवंत नर ज्ञान बिन, खोवें बादि दितान ॥ मोक्षमारगी मुनिवरा, जिनकी सेव करेय । सो श्रावक धनि धन्य है, जिनमारग चित देय ॥६॥ जिन मंदिर जो शुभ रचे, अरचै जिनवर देव । जिनपूजा नितप्रति कर, करे साधुकी सेव ।। करे प्रतिष्ठा परम जो, जात्रा करे सुजान । जिन शामनके प्रन्थ शुभ, लिखवावै मतिवान ॥ घरविधि संघतणो सदा, सेवा धारे वीर । पर उपगारी सर्वकी, पीड़ा हरे जु वीर । अपनी शक्ति प्रणाम जो, धारै तप अर दान।