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मंगल। क्रोध लोभ छल मोह मद, त्यागि गहू गुन नैंन । कर्तृम और अकर्तृ मा जिन प्रतिमा जिनगेह । तिन सबकूपरणाम करि, घारू धर्म सनेह ।। गाऊ चउविधि दान शुभ, गाऊं दशधा धर्म । गाऊ षोडस भावना, नमि रतनत्रय धर्म ॥ सतऊ सर्व यतीसुरा, बिनऊ आर्या सर्व । सब श्रावक अर प्राविका, नमन करों तजि गर्व ॥ करों बीनती मना घर, समदृष्टिनसों एह। अपनोंसौं धीरज मुझे, देहु, धर्ममें लेह ॥ लोकशिखरपर थान जो, मुक्तिक्षेत्र सुखधाम । जहां सिद्ध शुद्धातमा, “तिष्टें केवलराम ॥ नमो नमों ता क्षेत्रको, जहा न कोई उपाधि । आदि ब्याधि असमाधि नहिं बरतै परम समाधि । प्रणमि झान कैवल्यकों, केवल दर्शन ध्यान। यथाख्यात चारित्रा, बन्दों सीस नवाय ॥ प्रणमि संयोग सथानको, नमि अजोग गुणयान । क्षायक सम्यक बंदिके, वरणों ब्रत बिधान ।। बन्दों चउ आराधना, बंदों उपशम भाव । जाकरि क्षायक भाव है, होय जीव जिनराय ॥५०॥ मूलोत्तर गुण साधुके, व्है जिनकरि जनसिद्ध । तिन बंदि कहू क्रिया, त्रेपन परम प्रसिद्ध। जहा मुनि निज ध्यान करि, पावें केवलज्ञान । बंदो ठौर प्रशस्त ओ, तीरथ महा निधान ।