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जैन-क्रियाकोष। मूत्र करन्ता मौन जु होई, इह आज्ञा धारै बुध सोई ।। अन्तराय अर मौन ज सप्ता, पावै श्रावक पाप अलिप्ता । अब जलकी किरिया सुनि धर्मी,जे नहिं धारें तेहि अधर्मी ॥ नदी तीर जो होय ममाणा, सो तजि घाट ज निन्य बखाणा।
और घाटको पाणी आणो, इह जिन आज्ञा हिरदे जाणो ॥ लोक भरन जे निजस्या आवै, तिनके ऊपरलौ जल ल्यावै । सरवर माहिं गावको पानी, आवै सो मरवर तजि जानी ॥ गांबथकी जो दूरि तलावा, ताको जल ल्यावौ सुभ भावा । तजे अपावन निन्दक नीरा,अब वापीकी विधि सुनि वीरा ।। जा माहीं न्हावै नरनारी, कपरा धावहिं दातनिकारी । ता वापीको जल मति आनों, नहा न निर्मलताई जानों ।। कूपतणी बिधि सुनहु प्रबीना, जहा भरें पानी कुल हीना। तहा जाहि मनि भरवा भाई, तबै ऊंचकौ धर्म रहाई ॥६०॥ उत्तम नीच यहै मरजादा, यामे है कछह न विवादा । यवन अन्तिजा सबसे हीना, इनको कूप मदा नजिदीना ॥ अब तुम बात सुनो इक और, शंका छाडि बखानौ और। धर्मरहितके पानी घरको, त्यागौ वारि अधर्मी नरको ।। बिन माधर्मी उत्तम बंमा, पर घरको छाड़ो जल अंसा ।। दोहा-जलके भाजन धातुके, जो होवें घर माहिं।
पूंछमाजि नित धोयवा, यामे संसै नाहि ।। अर जे वासण गारके, गागर घट मटकादि । तेहि अल्पदिन राखिवौ, इह आज्ञाजु अनादि ।। राति सुकाया वा धरा, माटी बासण बीर ।