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जैन-क्रियाकोप |
लया ।
॥ ८ ॥
जैसो रुधिरथ की वे स्नान, तैसो अनगाले अलजान ॥ ७ ॥ व्यचित्त जले न्हावे है भया, प्रासुक निर्मल विधिकरि ताहूकी मरजादा धरै, बिना नेम कारिज नहिं करें रात्री न्हावे नाहि कदापि जीव न सूझे मित्र कदापि । हिंसा सम नहि पाप ज और दया सकल धर्मनि कर मौर ध आभूषण पहिरे हैं जिते, घरमें ओर घरै हैं तिते । नियम बिना नहिं भूषण धरै, सकल वस्तुकौ नियम ज करें |१० परके दीये पहरै जेहि, नियम माहिं राखे हैं तेहि । रतनत्रय भूषण त्रिनु आन, पाहन सम जाने मतिवान ॥। ११ ॥ aafrat जेती मरजाद, ता माफिक पहरे अविवाद । व्यथवा नये ऊजरे और, नियमरूप पहरे सुभतौर ॥ १२ ॥ सुसरादिकके दीने भया, अथवा मित्रादिकते लया । राजादिकने की बकसीस, अदभुत अंवर मोल गरीस ॥ १३ ॥ नित्यनेममें राख होइ, तौ पहिरै नहिंनरि नहिं कोइ । पावनिकी पनही हैं जेहि, तेऊ वस्त्रनि माहिं गिनेहि ॥ १४ ॥ नई पुरानी निज परतणी, राखे सो पहिरे इम भणी । पनही त पहरवौ भया, तौ उपजे प्राणिनिको दया ॥ १५ ॥ रथवाहन सुखपाल इत्यादि, हस्ती ऊंटरु घोटक आदि । प थलके वाहन सबै, फुनि बिमान आदिक नभ फबे ॥ नाव जिहाज आदि जलकेह, इनमें ममता नाहि कोइक जावो जीवे तजैं, कोइक राखं नियमा भजे तिनहूँमें निति नेम करैइ, बहु अभिलाषा छाड़ि जु देइ । मुनि हवौ चाहे मन मांहि, जगमाही जाको चित नाहिं ॥ १८ ॥
घरेह |
॥ १७ ॥
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१६ ॥