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बारह प्रत वर्णन। बाहन चढ़े होइ नहिं दया, ताते तज धन्य ते भया। मुनि आर्या मर श्रावक बड़े, हैं जु निरारंभी अति छड़े । १ ते बाहनको नाम मे धरै, जीवदया मारग अनुसरैं। भारम्भी श्रावक राजादि, तिनके बाहन है जु अनादि ॥ २०॥ तेज कर प्रमाण सुवीर, नित्यनेम धार जगधीर । तीर्थकर चाक्री अरु काम, कुनि है फिरें पयादे राम ॥ २१ ॥ तारौं पगा चालिवौ भला, परसिर चलिवो है अघमिला। इहै भावना भावत रहै, सोवेगो शिवकारन लहै ॥२२॥ रतनत्रय शिवकारण कहे, दरसन ज्ञान चरण जिन लहे। अब सुनि शयनाशनको नेम, घारै श्रावक व्रतसों प्रेम ॥ २३ ॥ जोहि पलंगपरि सोवो तनों, सोडू शयन परिग्रह गनों। सौड़ दुलाई तकिया आदि, सब सज्जा माहिं अनादि ।॥ २४ ॥ इनको, नेम धरै व्रतवान, भूमि शयन चाहै मतिवान । भूमि शयन जोगीश्वर करे, उत्तम श्रावक हू अनुस” ॥२५॥ आरंभी गृहपतिके सेज, तेह नियम सहित अधिकेन । जापरि परनारी सोवैहि, सो सज्जा बुध नहिं जोवैहि ॥ २६ ॥ निज सज्जा राखी है भया, ताहुमें परमित अति लया। व्रतके दिन भू सज्जा करे, भोग भावते प्रेम न धरै ॥२७॥ गादी गाऊतकिया आदि, चौकी चौका पाट इत्यादि। सिंहासन प्रमुखा जेतेक, आसन माहिं गिनौ जु अनेक ॥२८ गिलम गलीचा सतरंजादि, जाजम चादर आदि अनादि । इन चीजोंसे मोह निवार, मासें होय पार संचार ॥२६॥ जोती जाति पिछौना कीहि सो सब आसन माहिं गनीहि ।