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________________ जैन-क्रियाकोष। तीजो सुहृदनुराग सुगनिये, मित्रथकी अनुराग सु धरिये। मरिवौ आनि बन्यू परि मित्रा, मिल्यौ न हमसों जाहुपवित्रा दूरि जु सज्जन तामैं भावा, मिलिबेको अति करहि अपावा अथवा मित्र कनारे जो है, ताके मोक्षथकी मन मोहे ॥२३॥ यों अज्ञानथकी भव भरमै, पावै नहिं सल्लेखण घरमैं। पुनि सुखानुबंधो है चोथो, सुख संसार तनों सहु थोथौ २४ या तनमें मुगते सुख भोगा, सो सब यादि करै शठ लोगा। यो नहि जाने भव सुख दुख ए, तीन कालमैं नाहीं सुख ए इनको सुख जाने जो भाई, भोदू इनसो चित्त लगाई। सो दुख लहै अनंता जगके, पावै नहिं गुण जे जिनगमके । पञ्चम दोष निदान प्रबंधा, जो धारइ सो जानहु अन्धा । परभवमैं चाहे सुख भोगा, यों नहिं जानें ए सहु रोगा २७ इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रा, हूवो चाहे पनि महमिन्द्रा । प्रतकों बेचै विषयनि साटे, सो जड कर्मबंध नहिं काटे २८ ए पाचो तजि घरइ समाधी, सो पावै सद्गति निरुपायी। या ब्रत सम नहिं दूजौ कोई, सबमैं सार जु इह त होई॥ याको जस सुर नर मुनि गावै, धीर चित्त यासों लव लावै। नमो नमों या सुमरणकों है, जो काटै मलदा कुमरणको है दोहा-उदै होः सल्लेखणा, जाहिं निवारे भ्राति। आव बोध जु घटि विर्षे, पइये परम प्रशान्ति ॥ ३१ ॥ कहे बरत द्वादश सबै, अर सल्लेखण सार । अब सुनि तप द्वादश तनों, भेद निर्जराकार ॥ ३२॥ प्रथमहिं बारह सपविर्षे, है अनशन अविकार।
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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