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बारह व्रत वर्णन। मुनि श्रावक दोऊनिकां, मारे आतमलीन ॥७॥ अति दुखको सागर भगत, तामैं सुख नहिं लेश । चहुंगति भ्रमण जु कब मिटै कट कलंक अशेश ना जगके झूठे रस सबै, एक रसस अतिसार । इहै धारना धर सुधा, होइ महा अविकार ॥८॥ भवतै अति भयभीत जो, डरयौ भ्रानणत धीर । निर्वानी निर्मान जो, चाखें निजरस बोर ॥८२॥ निषहते अति गिषम जे, निषया दुखकी खानि । भवभव मोकू दुख दियौ, सुख परणतिकों मांनि ॥८॥ साते इनको त्यागकरि, घरौं ज्ञानको मित्र । सप जो भव मातप हरै, कारण पुनीत पवित्र ।।८।। इह चितवतो धीर जो, रसपरित्याग करेय । नीरस भोजन लेयकै, ध्यावै आतम ध्येय ॥८५|| दूध दही धृत तेल अर, मोठी लवण इत्यादि । रस तजि नीरस अन्न ले, काटै कर्म अनादि ॥८६॥ अथवा मिष्ट कषायलो, खारो खाटो जानि । करवो और जु चिरपरो, यह षटरत परवानि ॥८॥ सजि रस नीरस जो भखै, सो आतमरस पाय । देय जलां जलि भ्रमणकों, सूधो शिवपुर जाय ।। भव बाकी वै जो भया, ता पावै सुरलोक । सुरथी नर हबै मुनिदशा, धारि ल. शिवथोक ॥८॥ अथवा सिंगारादि का, नव रस जगत विख्यात । सिनमें शांति सुरस गहै, ना सब रसका सात EDIT