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________________ immunmar जैन-क्रियाकोष । पर रस तजि जिनरस गहै, जाके रस नहि रोष। सो पावै समभावकों, दूरि करै सहु दोष ॥६॥ रसपरित्याग समान नहिं, दूजौ तप जगमाहि । जहा जीभके स्वाद सहु, त्यागै संशय नाहि ॥२॥ अब विविक्त शय्यासना, पंचम तप सुनि वीर। राग द्वेषके हेतु जे, आसन सज्जा वीर ॥३॥ तमि मुनिवर निरप्रन्थ ह्वै, बसैं आपमैं धीर । सन खीणा मन उनमना, जगतरुड़ गंभीर em पूजा हमरी होयगी, बहुत मजेंगे लोक । इह बाछा नहिं चित्तमैं, सही हरष अर शोक ॥१५॥ सकल कामनारहित जे, ते साधू शिवमूल । पापथकी प्रतिकूल है, भये ब्रह्म अनुकूल ॥६॥ तेसंसार शरीर अरु, भोगयकी जु उदास । अभ्यतर निज बोध धर, तप कुशला जिनदास | उपशमशीला शातधी, महासत्व परवीन । निवसै निर्जन वनविर्षे ध्यान लोन तनखोन ॥ECH गिरिसिर गुफा मंझार जे, अथवा बसें मसान । भूमिमाहि निरब्याकुला, धीर वोर बहु आन Meen तरकोटर सूना घरी, नदातीर निवसत । कर्म-क्षपावन उद्यमी, ते जैनी मतिवंत ॥१०॥ कंकरीला धरतीवि, विषम भूमिमै साधन तिष्टे घ्यावे तत्वकों, आराधन बाराधि ॥२॥ अगवासिनकी संगती, ध्यान विधनको मूल
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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