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________________ ग्यारा व्रत वर्णन । २०५ दशमी पड़िमा धारक संव, ज्ञानी ध्यानी अति मतिवंत । गिने रतन पाहून सम जेह, त्रण कंचन सब जानें तेह, ८६ शत्रु मित्र सम राजा रक, तुल्य गिनै मनमें नहिं संक । बाधव पुत्र कुटुम्ब धनादि, तिनकू भूलि गये गनि वादि ॥६०॥ जानें सकल जीव समरूप, गई विषमता भागि विरूप । पर घर भोजन करें सुजान, श्रावक कुल जो किरियावान || ११|| अल्प अहार सहालें धीर, नहि चिन्ता घार वर वीर । कोमल पीछी कमंडल एक, बिना धातुको परम विवेक ॥६२॥ इक कोपीन कणगती छया, छह हस्ता इक वस्त्र हु भया । इक तह एक पाटकौ जोय, यही राति दशमीको होय ||१३|| जिन शासनको है अभ्यास, आगम अध्यातम अभ्यास । अब सुनि एका दशमी घार, सबमें उतकिष्टे निरधार ॥६४॥ बनवासी निरदोष अहार, कृतकारित अनुमोदन कार, मनवच काय शुद्ध अविका, सो एकादश पड़िमा धार ॥६५॥ ताके दो भेद हैं भया, क्षुल्लक ऐलिक श्रावक क्या । लक खण्डित कपड़ा घरें, अरु कमडल पीछी आदरे ॥ ६६ ॥ इक कोपीन कणगती है, और कछू नहिं परिगृह चहे । जिनशासनको दासा होय, क्षुल्लक ब्रज्ञचार है सोय ||६|| ऐलि धेरै कोपीन हि मात्र, अर इक शौचतनू' है पात्र । कोमल पीछी दया निमित्त, जिनवानीको पाठ पविच ॥६८॥ पश्च परनिमें एक परेहिं भोजन मुनिकी भांति करेहिं । ये है चिदानन्दमैं लीन, घर्मध्यानके पात्र शुल्क जीमैं पात्र मंझार, ऐलि करें करपात्र बहार । प्रवीन ॥ ६६ ॥
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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