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________________ २०४ अन-क्रियाकोष ते नहिं परिगृह त्यागी कहैं, चाह करन्ते अति दुखल. ॥७॥ जे अभ्यंतर त्यानें सङ्ग, मूरिहित लहें निजरङ्ग। ते परिगृहत्यागी हैं राम, बाछा रहित सदा सुखधाम ॥७॥ शानिन बिन भीतरको सङ्ग, और न त्यागि सबै दुख अङ्ग। राग दोष मिथ्यात विभाव, ए भीतरके सङ्ग कहाव ॥६॥ तजि भीतरके बाहिर सगै, सो बुध नवमी पडिमा भने। वस्त्र मात्र है परिगृह जहां, धातुमात्रको लेश न तहां ॥८॥ नर्म पूजणी धार धीर, पट कायनिकी टारै पीर। जलभाजन राबैं शुचि कान, त्यागै धन धान्यादि समाज ॥८१॥ काठ तथा माटीको जोय, और पात्र राखै नहिं कोय । जाय बुलायो जीमैं जोय, श्रावकके घर भोजन होय ॥२॥ दशमी प्रतिमा पर बड भाग, लौकिक वचनथकी नहिं राग। बिना जैनवानी कछु बोल, जो नहिं बोलै चित्त अडोल ॥८॥ जगत काज सब ही दुखरूप, पापमूल परपश्च स्वरूप। ताते लौकिक वचन न कहै, जिनमारगकी सरधा गहै ॥४॥ मोन गहै जगसेती सोय, सो दशमी पडिमाधर होय । श्रुति अनुसारधर्मकी कथा, कर जिनेश्वर भाषी यथा ॥८५। जगतकाजको नहिं उपदेश, ध्यावे धीरज धारि जिनेश । बोले अमृत वानी वीर, षट कायनिकी टार पीर ॥८६॥ तजे शुभाशुभ जगके काम, भयौ कामना रहिक अकाम । जे ना करें शुभाशुभ काम, ते नहि लह देश जिनराज (1८७॥ रागद्वेष कलहके धाम, दीसैं सकल जगतके काम। जगतरीतिमैं जे नर धसा, सो नहिं पाचे उत्तम दसा ical
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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