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________________ जैन-क्रियाकोष मुनिवर ऊमा लेय महार, ऐलि अर्यका बैठा सार ॥१०॥ हुलक कतरावै निज केश, ऐलि करें शिरलोंच अशेष । पहली पड़िमा आदि झुलेय, क्षुल्लकलों प्रत सबकू देव ॥१॥ श्रीगुरु तीन वर्ण बिन कदे, नहिं मुनि ऐलित. प्रत है। पहलीसों छट्ठीलों जेहि, अघन्य श्रावक आनो तेहि ।।२।। सप्तमि अष्टमि नवमी धार, मध्य सरावक हैं अविकार। दशमी एकादशमी वन्त, उतकिष्टे भाई भगवन्त ॥३॥ तिनहूमैं ऐलि जु निरधार, ऐलिथकी मुनि बड़े विचार। मुनिगणमैं गणधर है बड़े, ते जिनवरके सनमुख खड़े ॥४॥ जिनपति शुद्धरूप हैं भया, सिद्ध परै नहिं दूजौ लया। सिद्ध मनुज बिन और न होय, चहुगतिमै नहिं नरसम कोय ॥ नरमैं सम्यकदृष्टी नरा, तिन" बर आवक व्रत धरा। घोड़स स्वर्गलोकलो जाहिं, अनुक्रम मोक्षपुरी पहुंचाहि ॥६॥ पचमठाणे ग्यारा भेंद, घारै तेहि करें अघछेद । इह श्रावककी रीति जु कही, निकट भव्य जीवनिने गही ॥७॥ ऊपरि ऊपरि चढते भाव, विकरतभाव अधिक ठहराव । नींव होय मन्दिरके यथा, सर्व ब्रतनिके सम्यक नथा। दान वर्णन दोहा - प्रतिमा ग्याराको कथन, जिन आज्ञा परवान। परिपुरण कीनू भया अब सुनि दान बखान I.en कियौ दान बरनन प्रथम, अतिथिविभाग जु माहि। अबहू दान प्रबन्ध कछु कहिहौं दूषण नाहि ॥१०॥ ...
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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