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बारह नव वर्णन। नहिं तथापि सब सम गिने, हनै न आढू गर्व परम धरम है यह दया, कथै सकल जन पह। चुगली-चाटी नहिं तजै, दया कहाते लेह ।। दया वृत्तके कारणे, जे न सजें आरम्भ । तिनके करुणा होय नहिं, इह भाये परना॥
दया धर्मको छाडिक, जे पशुधात करेय । ते भव भव पीडा लहै, मिथ्या मारग सेय ।। दया बतावें सब मता, समझ न काहू माहि । धर्म गिने हिंसा विर्षे, जतन जीवको नाहिं॥ दया नहीं परमत विषे, दया जैनमत माहिं । बिना फैन यह जैन है यामें संषय नाहिं। दया न मिथ्या मत विषे, कही कहा है वीर । करुणा सम्यक भाव है,यह निश्चय धरि धीर ।। काहेके वे देवता, करें जु मास महार। ते चिंडाल बखानिये, तथा श्वान मंजार ॥ देवनिको आहार है-अमृत और न कोय । मासासी देवानिकू, कहै सु मूरखि होय ॥ मंगल कारण जे जड़ा जीवनिको जु निपात । करें अमङ्गल ते लहें होय महा उतपात ॥४०॥ ने अपने जीवे निमित, करें औरको नास । ते लहि कुमरण बेगही, गहे नरककों वास ॥ मध मास मधु खाय करि, जे बांधे अधकर्म । ते काहेके मिनख हैं, वह भावे जिनधर्म ॥