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जैन-क्रियाकोष। बहुरि तजौ जु रहो भ्याख्यान,ताको व्यक्त सुनो व्याख्यान । गुपत बारता परको कोइ, मति परकासौ मरमी होइ । कूट कुलेख क्रिया तजि वीर, कपट कालिमा त्यागहु धीर ।। करि न्यासापहार परिहार, ताको भेद सुनू प्रतधार । पेलो आय धरोहरि धरै, अर कबहु विसरन वह करै।। तौ वाको चित एम जु भया, देहु परायो माल जु लया। भूलिर थोरो मागै वहै, तो वाको समझायर कहै ।। तुमरो देनो इतनों ठीक, अलप बतावन बात अलीक । ले जावो तुमरो यह माल, लेखामे चूको मति लाल । घटि देवेको जो परणाम, सा न्यामापहार दुख थाम । अथवा धरी पराई वस्तु, जाकी बुद्धि भई विध्वस्त ।।
और ठौरकी और जु ठौर, करै सोइ पापनि सिरमौर । पुन साकारमंत्र है भेद, तजौ सुबुद्धी सुनि जिनयेद ।। दुष्ट जीव परको आकार, लखता रहै दुष्टताकार। लखि करि जानै परको भेद, सो पावै भव बनमें खेद ॥ परमंत्रिनको करइ विकाश, सो खल लहै नरकको वास । जो परद्रोह धरै चितमाहि,इह भव दुखलहि नरकहि जाहिं ।।५।। अतीचार ए पाचों त्यागि, सत्य धरमके मारग लागि। परदारा परद्रव्य समान, और न दोष कहे भगवान् ।। परद्रोह सो पाप न और, निधौ श्रुतमें ठौर जु ठौर । जिन जान्यूनिज आतमराम,तिनके परधन सों नहिंकाम ।। सत्य कहें चोरी पर नारि, त्यागी जाइ यहै उरघारि। झंठ बकें तें जैनी नाहिं, परधन हरन न या मत माहिं ।।