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जैन-क्रियाकोषा भरतरावत छेत्र दस तिनके दस जिनराय। ए दस अर वे सर्व ही, सौ सत्तरि सुखदाय ॥ ८॥ घटि है तो जिन बीसते, कटे न काहू काल । पंच बिदेह विर्षे महा, केवल रूप बिशाल ॥६॥ चले धर्म द्वय सासता, यति प्रावक ब्रत रूप । टले पाप हिंसादिका, उपजें पुरुष अनूप ॥१०॥ कालचक्रकी फिरणि बिन, कुलकर तहा न होय । नाहि कुलिंगम वरति है, ताते रुद्र न जोय ।। तीर्थाधिप चक्री हली, हरि प्रतिहरि उपजंत । इन्द्रादिक आवें जहा, करें भक्ति भगवंत॥ तीर्थकर अर केवली, गणधर मुनि बिहरंत । जहा न मिथ्या मारगी, एक धर्म अरहंत ।। तात मात जिनराजके, मर नारद फुनि काम । परघट पुरुष पुनीत बहु शिवगामी गुण धाम ।। है विदेह मुनिवर जहा, पंच महाव्रत धार । सातें महा विदेहमें, सत्यारथ सुखकार ।। भरत रावत दस विर्षे, कालचक्र है दोय । अवसप्पिणी उतसर्पिणी,, षटर काला सोय । तिनमें चौथे काल ही, उपजें जिन चौबीस । द्वादश चक्री नव हली, हरि प्रतिहरि अवनीसा ।। त्रिसठि सलाका पुरुषए, जिन मारग धरधीर।
*शरीर हित । २ स्वामी ।