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________________ रतनयन महावत है सोई 1८६ पशु पंछी नर दानव देवा, भव बासौ रमनारत मेवा नै निरन्तर मदन विकारा, सो चौथो जु महारत मारा HEL द्विविधि परिम्ह त्यागै माई, अन्तर बाहिर संग न काई । नगन दिगम्बर मुद्रा धारा, सोहि महावत पंचम सारा ॥६॥ ईयासमिति सषी जो चाले, भाषा समिति कुमाषा टाले । मलै महार अदोए मुनीशा, शाहि एषणा कई अधीशा ॥२॥ है अदाननिक्षेपा सोई, लेहि निरखि शासादिक जोई। अर परिठवणा पंचम समिती, निरखि भूमि डारे मल सुजती ॥६॥ मनोगुप्ति कहिये मन रोया, वचनगुप्ति जो वचन निरोधा । कायगुप्ति काया बस करिवी, ए तेरह विधि चारित परिवौ ॥४॥ एकदेश गृहपति चारित्रा, द्वादश व्रतरूपी हि पवित्रा । जो पहली भाल्यो अब सातै, कहो नहीं प्रावकलत साते ५॥ इह रतनत्रय मुनिके पूरा, होवे मष्टकर्म दल चूरा। श्रावकके नहिं पुरण होई, धरै न्यूनतारूप जु सोई॥६६॥ इह रतनत्रय करि शिव लेखे, चहुंगतिको भवि पानी देवे । या करि सीझे अरु सीहोंगे, यह लाह परमैं नहिं रीझेंगे या या करि इन्द्रादिक पद हो सो दूषण शुभकों बुष जोवै। इह तो केवल मुक्ति प्रदाई, बंधनरूप होय नहिं भाई neu बंध विदारन मुक्ति सुकारण, ह रतनत्रय जगात उधारण। रतनत्र सम और न दूजौ, इह रतनत्रय त्रिमुक्न पूमौ #EEN रतनत्रय मिनु मोक्ष न होई, कोटि उपाय करें जो कोई। नमस्कार या रतनत्रयकों, ओ दै परमभाव अक्षयकों ॥१०॥ रतन यकी महिमा पूरन, मानि सकेसु कर्म बिचूरन । मुनिबरह पूरण नहिं जानें, जिनआक्षा अनुसार प्रवाने ॥१०॥ सहस जीभ फार धरणान कर्द, सिनाई पै नहिं जाय वरई। हमसे भाजपमयी
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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