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समभाव वर्णन |
पै तथापि तेरा रही, तार्तें पूरण नहिं कहा ॥५०॥ रही नौकरी एक, और गनि नो-कषाय नव । तिनको नाश करेय, सो न पावै कोई भव ॥ छट्टे तीव्र जु उदै, सातवें मंद ज, इनमें पट हास्यादि, आठवें अन्त जु क्रोध मान अर कपट नो, वेद तीनही चौथे चौकार लोभसू -क्षण दश ठाण बिनाशिया ॥५१॥ छन्द चाल -- एकादशमा द्वादशमा, फुनि तेरम अर चौदशमा ।
नहिं या ।
समभावतने गुणथाना, ए च्यारि कहे भगवाना ॥ ५२ ॥ ग्यारम है पतन स्वाभावा, डिगि जाय तहा समभावा । बारहमैं परम पुनीता, जासम नहिं कोई अजीता ||५३|| तेरम चौदम गुणठाणा, परमातमरूप बखाना | समभाव तहा है पूरा, कीये रागादिक नहि यथाख्यात सौ कोई, समभाव सरूपी सोई । इह सम उतपत्ति बताई, रागादिक नाश कराई ॥५५॥
चूरा ||५४||
अब सुनि सम लक्खण संता, जा विधि भाषै भगवंता । जीवौ मरिवौ सम जानै, अरि मित्र समान बखानें ॥५६॥
इनक 1
तिनकौ ॥
सुख दुख अर पुण्य जु पापा, जानें सम ज्ञानप्रतापा । सब जीव समान विचारे, अपनेसे सर्व निहारे ॥५७॥ चिंतामणि पाहून तुल्या, जिनके सम भाव मतुल्या । सुरगति अर नक समाना, सब राव रंक सम जाना ॥५८॥ जिनके घर मै नहिं ममता, उपजी सुखसागर समता । वन नगर समान पिछाने, सेवक लाहिब नम जान १५३१