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जैन-क्रियाकोष। असम कुल है परमन धारी, तिनहूके भोजन नहिं कारी॥ जैन धर्म जिनके घट नाहीं, आनदेव पूजा घर माहीं। तिनको छूयौ अथवा करको, कबहू न खावै तिनके घरको ।। कुल किरिया करि आप समाना,अथवा आप थकी अधिकाना । तिनको छुयो अथवा करको,भोजन पावन तिनके घरको ।। अर जे छाणि न जाणे पाणी, अन्न वीणकी रीति न जाणी। भक्षाभक्ष भेद नहि जाने, कुगुरु कुदेव मिश्यामत मानें ।। तिनते कैसी पाति जु मित्रा, तिनको छूयौ है अपवित्रा । चर्म रोम मल हाथीदन्ता, जेहिं कचकडा विकल कहन्ता ।। तिन” नहिं भोजन सम्बन्धा,यह किरियाको कयौ प्रबन्धा । जङ्गम जीवनके जु शरीरा, अस्थि चर्म रोमादिक बीरा॥ सब अपवित्रा जानि मलीना, थावर दल भोजनमे लीना। रोमादिकको सपरस होवै,सो भोजन श्रावक नहिं जोवै॥ नीला वस्त्र न भीट सोई, नाहि रेशमी वस्त्रहु कोई । बिना धोया है कपरा नाहीं, इह आचार जैनमत माहीं॥ दया लिया है किरिया धारी, भोजन करै सोधि आचारी। पाच ठावसू भोजन नाही, धोति डुपट्टा बिमल धराही ।। बिन उजलता भई रसोई, त्याग करै ताळू विधि जोई। पंचेन्द्री पसुहूको छ्यौ, भोजन तजे अविधिते हूयौ ।। सौधतनी सब बस्तु जुलेई, बस्तु असोधी त्यागै तेई। अन्तराय जो परे कदापी, तजै रसोई जीव निपापी ॥४॥ दया क्रिया बिन श्रावक कैसें ,बुद्धि पराक्रम बिन नृप जैसें । मास रुधिर मल अस्थिजु चामा, तथा मृतक प्राणी लखिरामा।।