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________________ जैन-क्रियाकोष। जलरेला सो रोस है, बेतलता सो मान । माया सुरभी चमरशो, लोभ पतंग समान ॥६॥ तथा हरिद्रारंग सो, सुरगति दायक जेह । एक महूरत बासना, अन्त चौकरी लेह ॥७॥ कही चौकरी चारि ये, च्यार हि गतिको मूल । चारि चौकरौ परि हरै, करै करम निरमूल ॥८॥ मुनिने तीन जु परिहरी, धरी सातता सार । चौथी हूको नाश करि, पावै भवजल पार ॥६॥ सकल कर्मकी प्रकृति सौ, अरि उपरि अड़ताल । मुनिवर सर्व खपावहीं, जीवनिके रिछपाल ॥१०॥ मुनिपद बिन नहिं मोक्ष पद, यह निश्चै उरधारि। मुनिराजनकी भक्ति करि, अपनो जन्म सुधारि ॥११॥ छन्द चाल। मुनि हैं निभय वनवासी, एकान्तवास सुखरासी । निज ध्यानी आतमरामा, जगकी संगति नहीं कामा ॥१२॥ जे मुनि रहनेको थाना, बनमें कराहिं मतिवाना। ते पावं शिव सुर थाना, यह सूत्रप्रमाण बखाना ॥१३॥ मुनि लेई अहारइ मित्रा, लघु एक बार कर पात्रा । जे मुनिको भोजन देही, ते सुरपुर शिवपुर लेही ॥१४॥ जो लग नहि केवल भावा, तौलग आहार धरावा। केवल उपजें न अहारा, भार्गे भवदूषण सारा ॥१५॥ नहिं भूख तृषादि सबै ही, जब केवल ज्ञान फबही। केवल पायें जिनराजा, केवल पद ले मुनिराजा ॥१६॥
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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