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जैन-क्रियाकोष । बूती न ब्रह्मा-लवलीन सो, तिरै, भवोदधि सोय ।। विद्या ब्रह्म-विज्ञानमी नहीं दूसरी जान । विज्ञ नहीं ब्रह्मज्ञ सो, इह निश्चै उर आन । ब्रह्म बासना सारिखी, और न रसकी केलि । विषै वासना सारिखी,और न विषकी बेलि ।। आतम अनुभव शक्तिसी और न अमृतबेलि । नहीं ज्ञान सो बलवता, देहि मोहको ठेलि ।। अबूत नाहि कुशील सो, नरक निगोद प्रदाय । नही सील सो संजमा, भाषे श्रीजिनराय ।। धर्म न श्रीजिनधर्मसे नहिं जिनवरसे देव । गुरु नहिं मुनिवर सारिखे, रागीसे न कुदेव ।। कुगुरु न परिबहधारिटै, हिंसामो न अधर्म । भर्म न मिथ्या सूत्रसो, नहीं माह सो कर्म ।। द्रव्य न कोई जीव सा, गुन न ज्ञान सो आन । ज्ञान न केवल ज्ञान सो जीव न सिद्ध समान ॥४०॥ केवलदर्शन सारिखो, दर्शन और न कोई। यथाख्यात चारित्र सो चारित और न होई ।। नहिं विभाव मिथ्यातसो सम्यकसो नहिं भाव । क्षायिकसो सम्यक नहीं, नहीं शुद्धसा भाव ॥ साधु न क्षीणकषायसे,श्रेणि नक्षपक ममान। नहिं चौदम गुण थानसो, और कोई गुणथान ॥ नहिं केवल परतक्षसो, और कोई परमाण । सुकल ध्यानसो ध्यान नहिं, जिनमतसा न बखाण ।।