________________
बारह प्रत वर्णन। देविनिको गुरु देव दयानिधि, तासम कोई न है सुखदाई ॥ रोष समान न दोष क. बुध, मोक्ष समान न आनन्द भाई। सोष समान न कारण मोक्ष, कहैं भगवन्त कृपा उर छाई ॥ २६ ॥ अंग प्रसंग भये बहु संग, तिनौ महिं नाह अभंग जु कोई । सुद्ध निजामत भाव अखंडित, ता महिं चित्त धरै बुध सोई॥ बंध विदारण, दोष निवारण, लोक उधारण और न होई । जा सम कोई न जान महामसि, टारइ राग विरोध जु दोई ॥३०॥ दोहा-धन्य धन्य श्रावक व्रती, जो समकित धर धीर ।
तन धन आतम भावतें, न्यारे देखें वीर ॥३१॥ तन धनको अनुराग नहिं एक धमको राग । संतोषी समता धरो, करै लोभको त्याग ॥ ३२॥ मोह तनी ग्यारह प्रकृति शात होय जब वीर। तब धारै श्रावकवता, तृष्णा बर्जित धीर ॥३३॥ तीन मिथ्यात कषाय बसु, ये ग्यारह परवान । पंचम ठानें श्रावका, इनते रहित सुजान ॥३४॥ गई चौकरी द्वय प्रबल, जे दुरगति दुखदाय। रहो चौकरी द्वय अबै, तिनको नाश उपाय ।। ३५ ॥ चितवै मनमे सामती, है जौला अवसाय । तौलग तोजी चौकरी उदै धरै रहवाय ॥ ३६॥ अल्प परिग्रह धारई, आके अल्पारम्भ । अवसर पाय सिताब ही, त्यागै सर्वारम्भ ॥ ३७॥ मुनिब्रतके परसाद शिव-है अथवा अहमिन्द्र । प्रावकवरत प्रभाक्तें, सुर है तथा सुरिन्द्र । ३८ ॥