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बारह व्रत वर्णन |
विषयकषाय व्यतीत जो सो विवहार चरित्र । ए रतनत्रय भेद हैं, इनसे और न मित्र ॥ देव जिनेसुर गुरु जती, धर्म अहिंसा रूप | इह सम्यक व्यवहार है, निश्चय निज चिद्रूप ॥ नहिं निश्चय व्यवहारसी, सरधा जगमें कोइ । ज्ञान भक्ति दातार ये जिन भाषित नय दोइ ॥ भक्ति न भगवत भक्तिसी, नहिं आतमसो बोध | रोध न चित्तनिरोधसो, दुरनयसो न विरोध ॥ दुर्मती नहिं साकिनी, हरै ज्ञान सो प्रान । नमोकार भो मंत्र नहिं, दुरमति हरै निधान ॥ नहिं समाधि निरुपाधिसी, नहि तृष्णासी व्याधि । तंत्र न परम समाधिसो, हरै सकळ व्यसमाधि ॥ भवयंत्र जुभयदायको तासम विघन न कोय | सिद्ध यंत्र सो सिद्धकर, और न जगमें होय ॥ २० ॥ सिद्धक्षेत्रसो क्षेत्र नहिं, सर्व लोकके सीम । यात्री जतिवरसे नहीं, पहुंचे तहा मुनीस ॥ षोड़सकारण सारिखा, और न कारण कोय | तीर्थेश्वर भगवंतसा, और न कारज होय ॥ नाहीं दर्शन शुद्धिसा, षोडस माहीं जान । केवल रिद्धि बराबरी, और न रिद्धि बखान ॥ नहि लक्खण उपयोगसे, आतमतें जु अभेद । नाहिं कुलकण कुबुधिसे, करें धर्म को छेद || धर्म अहिंसा रूपके भेद अनेक बखान ।