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________________ जैन-कियाकोष । अनंतकाया दुखदाया, ते साधारण त्याग कराया ॥४॥ पत्र जाति पर कंद समूला, सजने फूलमाति अप धूला। सजने मच मास नधनीता, सहत त्यागिवौ कहैं अजीता ॥३॥ सजने काजी आदि सबैही, अस्थाणा सधाण तजेही। सजने परदारारिक पापा, तजिवी परधन पर संतापा ॥४०॥ इत्यादिक जे वस्तु विरुद्धा, तिनको त्यागै सो प्रतिबुद्धा। सबही तजिबौ महा अशुद्धा, अर जे भोगा हैं अविरुद्धा । ४१॥ भोग भावमें नाहिं भलाई, भोग त्यागि हूमै शिवराई । अपने गुण पर-जाय स्वरूपा, तिनामें गचे हित विरूपा III वस्त्राभरण ब्याहता नारी, खान पान निरदूषण कारी। इत्यादिको अविरुष भोगा, तिनहूको जान ए रोगा ॥४३॥ जों न सर्वथा तजिया जाई, नौ परमाण करौ बहु भाई। सर्व त्यागवौ कहैं विवेकी गृहपतिके कछु इक अविवेकी ॥४४॥ तो लगि भोगुपभोगहि अल्पा, विधिरूपा धारै अविकल्पा। मुनिके खान पान इकवारा, सोहू दोष छियालिस टारा ॥ ४५ ॥ और न एको है जु विकारा, तात महाव्रती अणगारा। त भोगउपभोग सबैही, मुनिवरका शुभ विरद फवैहो ॥४६॥ शक्ति प्रमाण गृहो हू त्याग, त्याग बिना ब्रतमें नहिं लागे। राति दिवसक नेम विचार, यम-नियमादि धरे अघ टार ॥४॥ यम कहिये आजन्म जु त्यागा, नियम नाम मरजादा लागा । यम नियमादि बिना नर देही, पसुहतें मूरख गनि एही ॥४८॥ खान पान दिनहीको करनों, रात्रि चतुर्विषहार हितजनों। नारी सेवे रैनि विर्षे ही, दिनमें मैथुन नाहिं फही ।।१९।।
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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