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__ जैन-क्रियाकोष । द्विपद चतुसपद आदि सजीव, रतन धातु वस्त्रादि अजीव । अपने तमतें सब भिन्न, परिग्रहतें हवै खेद जु खिन्न १०० है परिग्रह चिन्ताके धाम, इनको त्याग लहैं शिवठाम । जिनवर चक्री हलधर धीर, कामदेव आदिक वर बीर ॥१॥ तजि परिग्रह धारें मुनिरूप, मुनिसम और न धर्म अनूप । मुनि होवेकी शक्ति न होय, श्रावक व्रत धार नर मोय ॥२॥ कर परिग्रहको परमाण, त्यागै तृष्णा सोहि मजाण। इह परिग्रह अति दुखको मल, है सुखते अतिही प्रतिकूल ॥शा जैसे बेगारी सिर भार तैसें यह परिग्रह अधिकार । जेतौ थोरौ तेतौ चैन, यह आज्ञा गावैं जिन बैन ॥४॥ तातें अल्पारम्भी होय, अल्प परिग्रह धारे मोय । नाहूको नित त्यागो चहै, मन माहीं अनि विरकन रहै ॥५॥ जैसें राहु केतु करि कान्ति, रवि शशिको हवै और हि भाति तैसें परणति होय मलीन, आनमकी परिग्रह करि दीन ॥६॥ ध्यान न उपजे या करि कबे, याहि तनें पावै शिव तबै । समताको यह बैरी होय, मित्र अधोरपनाको मोय ॥ ७॥ मोह तनों बिश्राम निवास, यातें भविजन रहहिं उदास । नासै सुखकों सुभतें दूर, असुभ भावतें है परिपरि ॥ ८॥ खानि पापकी दुखकी रासि, रह्यौ आपदाको पद भासि । आरतिरुद्र प्रकाशक अंग, धर्म ध्यानको धरइ न संग । गुण अनंत धन धारयो चहै, सो परिग्रहते दूरहि रहै ।। ६ ।। दोहा-लीलावन दुरध्यानको, बहु आरम्भ मरूप ।
आकुलताको निधि महा, संसैरूप विरूप ॥ १० ॥