________________
पारह व्रत वर्णन। मदका मन्त्रो काम घर, हेतु शोकको सोइ । कलह तनो क्रीडा प्रह, जनक बैरको होइ ।। १५ ॥ धन्य धरी वह होयगा, जब तजियेगो सङ्ग। यामें बडपन नाहि कछु, महा दोषको अङ्ग ॥१२॥ हिंसादिक अपराधका, कारण मूल बखानि ।। जनम जनममे जीवको, दुखदाई सो जानि ।। १३ ।। धृग धृग द्विविधा संगको, जो रोके शिव सङ्ग । चहुंगति माहिं भ्रमाय करि, करें सदा सुख मग ॥१४॥ जो यामें बडपन गिने, सो मूरख मतिहीन । परिग्रह वान समान नहिं, और जगतमें दीन ॥ १५ ॥ धन्य धन्य धरमज्ञ जे, याकू तुच्छ गिनेय । माया ममता मूरछा, सर्बारम्भ तजेय ॥ १६॥ यही भावना भावतो, भविजन रहै उदास । मनमे मुनिव्रतकी लगन, सो श्रावक जिनदास ॥ १७ ॥ बहुरि बिचारै सो सुधी, अगनि धरै गुण शीत । जो कदापि तौहु न कबै, परिग्रहवान अभीत ॥ १८ ॥ कालकूट जो अमृना, होइ दैव सयोग।। नहिं तथापि सुख होय ते, इन्द्रियनके रसभोग ॥ १६ ॥ विषयनिमे जे राचिया, ते रुलि भव माहिं। सुख है आतम ज्ञानमें, विषय माहिं सुख नाहि ॥ २० ॥ थिर हवै तड़ित प्रकाशजी, तौहु देह थिर नाहि । देह नेह करिवौ वृथा, यह चितवै मनमाहिं ॥२५॥ इन्द्रजाल जो सत्य हवे, देवयोग परवान ।