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जैन-क्रियाकोष ए त्रिविध उत्तमा पात्रा, तप संजम शील सुमात्रा। तिनकी करिभक्ति सु वीरा, उतर जा करिभवनीरा ॥८॥ मुनिवर होवै निरगषा, चालै जिनवरके पंथा। जो विरकत भव भोगनितें, राग न दोष न लोगनितें। ८४ । विश्राम आपमें पायौ, कामें चित्त न लायौ । रहनों नहिं एक ठौरा, करनों नहिं कारिज औरा । ८५। घर निज-आतम-ध्यान, हरनू रागादि अज्ञान ।
नहिं मुनिसे अगमें कोई, उतरें भवसागर साई। ८६ । दोहा-मोह कर्मकी प्रकृति सहु, होय जु अट्ठाईस ।
तिनमे पन्द्रह उपसमे, तब होवे जोगीस । ८७ । पन्द्रा रोकें मुनिव्रते, ग्यारा अणुव्रत रोध । सात जु रोकें पापिनी, सम्यक दग्शन बोध ।८८। क्रोध मान छल लोभ ए, जोवोंकों दुखदाय । सो चंडाल जु चाकरी, वरजें श्रीजिनराय ॥ ८ ॥ अनंतानुबन्धी प्रथम, द्वितीय अप्रत्याख्यान । प्रत्याख्यान जु तोमरी, अर चौथी संज लान ॥ १० ॥ तिनमे तीन जु चौकरी अर तीब्र मिथ्यात । एपंदरा प्रकृत्तिया, तजि व्रत होइ विख्यात ॥ ११ ॥ पहली दूजी चौकरी, बहुरि मिथ्यात जु तीन । ए ग्यारा प्रकृती गया, श्रावकात लवलीन ।। १२ ॥ प्रथम चौकरी दूजी है, टरै तीन मिथ्यात । ऐ सातों प्रकृती टसा, उपजे सम्यक भ्रात ।६३ । तीन चौकरी मुनिव्रते, द्वे अणुव्रत विधान ।