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भरत और बाहुबली का युद्ध
४१ लिए उद्यत आमने-सामने खड़े दोनों पक्षों के वीरो, महासुभटों और सैनिकों के शस्त्रास्त्रों की टक्कर ऐसी लगती थी, मानो जलजन्तुओं की सामुद्रिक तरंगों के साथ परस्पर टक्कर हो रही हो । भाले बालों का भाले वालों और वाण वालों का वाण वालों के साथ सग्राम ऐमा प्रतीत होता था, मानो साक्षात यमराज ही उपस्थित हो गये हों। तत्पश्चात् महावलशाली बाहुबलो ने समग्र सेना को रुई की पूनी के ममान दूर हटा कर भरत से कहा-'अरे भाई ! यों ही हाथी, घोड़ों, रथ और पैदल सेना का संहार करवा कर व्यथं पाप क्यों उपार्जन कर रहे हो ? अगर तुम अकेले ही लड़ने में समर्थ हो तो आ जा दोनों ही आपस में लड़ कर फैसला कर लें । बेचारी सेना को व्यर्थ ही क्यों संहार के लिये झौंक रहे हो?" यह सुन कर दोनों ने अपने-अपने सैनिकों को युद्धक्षेत्र से हट जाने को कहा। इस कारण वे साक्षी के रूप में रणक्षेत्र के दोनों ओर दर्शक के तौर पर खड़े हो गये । देव भी इसमें साक्षीरूप थे। दोनों भाइयों ने स्वय ही परस्पर द्वन्द्वयुद्ध करने का निश्चय किया। सर्वप्रथम दृष्टियुद्ध प्रारम्भ हुआ । आमने-सामने पलक झपाए बिना खड़े दोनों नरदेवों को देख कर देवों को भी भ्रम हो गया कि ये दोनों अनिमेष दृष्टि वाले देव तो नहीं हैं । दोनों के दृष्टि-यद में भरत की पराजय हुई। अत. वायुद्ध हुआ, जिसमे पक्ष
और प्रतिपक्ष की स्थापना करके वाद-विवाद किया जाता है। इसमें भी भरत की हार हुई । अतः महाभुजबली दोनों बलवानो ने बाहुयुद्ध प्रारम्भ किया । बाहुबलि ने अपनी बांह लम्बी की, भरत उसे झुकाने लगा। परन्तु भरत ऐसा मालम होता था कि महावृक्ष की शाखा पर बन्दर लटक रहा हो । तत्पश्चात् बाहुबलि की बारी आई तो महाबलशाली बाहुबलि ने भरत की भुजा को एक ही हाथ से लता की नाल की तरह नमा दी। उसके बाद मुष्टियुद्ध हुमा । बाहुबलि पर भरत ने प्रथम मुष्टिप्रहार किया, परन्तु जैसे सागर की लहरें तटवर्ती पर्वत पर टकराती हैं, उसी प्रकार उसकी मुष्टि सिर्फ टकरा कर रह गइ । बाहुबलि का कुछ भी न कर सकी। उसके बाद वाहुबलि की बारी आई तो उसने भरत पर वन के समान प्रहार किया। जिससे भरत गश खा कर नीचे गिर पड़ा। सेना की आंखों में आसू थे। मूर्छा दूर होते हो जैसे हाथी दंतशूल से पर्वत पर ताड़न करता है, वैसे ही दंड से भरत ने बाहुबलि को ताड़न करना शुरू किया । बाहुबलि ने भी भरत पर दण्ड-प्रहार किया। जिससे वह भूमि में खोदे हुए गड्ढे की तरह घुटनों तक जमीन में धंस गया । भरत को जरा संशय हुआ कि यह बाहुबली कहीं चक्रवर्ती तो नहीं होगा। इतना याद करते ही चक्र भरत के हाथ में आ गया । क्रोध से हुंकारते हुए भरत जमीन से बाहर निकले और प्रचण्ड चकाचौंध वाला चक्र बाहुबलि पर फेंका । सेना हाहाकार कर उठी। किन्तु यह क्या ! चक्र बाहुबलि की परिक्रमा करके वापस भरत के पास लौट आया । क्योंकि देवताओं से अधिष्ठित शस्त्र एक गोत्र वाले स्वजन का पराभव नहीं कर सकता । भाई भरत को अनीति करते देख कर क्रोध से आंखें लाल करते हुए बाहुबलि ने सोचा "चक्र ही से इसे क्यों न चूर-चूर कर दू !" इस विचार के साथ बाहुबलि ने अपनी मुट्ठी बांध कर मारने के लिए उठाई।
तत्क्षण बाहुबलि के दिमाग में एक विचार बिजली की तरह कौंध उठा-"कषायों के वशी. भूत हो कर बड़े भाई को मारने से कितना अनर्थ हो जायेगा ? इससे तो अच्छा यह होगा कि जो मुष्टि मैंने भाई को मारने के लिए तानी है, उससे कषायों को मारने के लिये पंचमौष्टिक लोच क्यों न कर लू।" इस प्रकार चिन्तन-मनन-अनुप्रेक्षण करते-करते बाहुबलि को संसार से विरक्ति उत्पन्न हो गई. और उन्होंने तत्काल ही उठाई हुई मुष्टि से सिर के बालों का लोच कर लिया। वे क्षमाशील मुनि बन