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हैं-तहां जैसे नेत्र तातै भला-बुरा नजर आवै तैसे ही मला श्रोता अपने भला-बुरा मार्ग उपदेशनै जानि जे बुरा | आचार्य पापकारी सो तो तजै और भला पुण्यकारी उपदेश सुनि ताही मार्गपर अपना श्रद्धान करें सो नैत्र समान श्रोता है।। और जैसे दर्पण से अपना मुख देखिये है ताकी अवस्था देखि अपने मुख रज मैल लगा होय तो धीयकै शुद्ध करै। तैसे ही भला उपदेश सुनि अपने चैतन्यस्वभाव पै कर्म रज जानि अपने आत्मप्रदेश निर्मल || | करने का उपाय करे सो दर्पण समान श्रोता है 1२। जैसे तराजू की डंडोतें अधिक व होन जान्यापरै तैसे ही भले, उपदेशक सुनि अपनी बुद्धिरूपी डंडीत भली-बुरी वस्तु को तोले। हीन को तजै अधिक फलदायक अङ्गीकार हरैः सोस की डंट. सम्मान होता है। और जैसे कसौटी पर घसि, भले बुरे सुवर्ण की परीक्षा करे तैसे ही भले श्रोता अपनी बुद्धि कसौटो तैं हितकारो तथा अहितकारोकं जानि तजन ग्रहण करै सो कसौटी समान श्रीता कहिये । ४ । रोसे ये च्यारि गुन सहित उत्तम श्रोता हैं। सो श्रोता ताकू कहिये जाके कर्ण इन्द्रिय होई और कान तो होय अरु मन नहीं होई तो शुभाशुभ विचाररहित असेनी को श्रोता पद सम्भवता नाहीं। ताते मन का धारी सैनी होय ऐसे श्रोत्रइन्द्रिय अरु मन जिनको होई सो शास्त्र के उपदेश धारने को योग्य होय हैं। अरु मन अरु कान तो हैं परन्तु धर्मोपदेश धारबे कों समर्थ नाही सो धर्म इच्छा रहित अज्ञानी आत्म, शुभ-अशुभ विचार बिना मनरहित असैनी समान है ताको धर्मलाभ होता नाहीं। और कानती हैं परन्तु कानन तें धर्मोपदेशरूप अमृत नाही पीय सके, तो कान रहित चौइन्द्री समान जानना । तातै मन अरु कानन के धारी श्रीता है सो अपनीअपनी परिगति प्रमारा फल को पावें हैं। कोई जीव तौ सभा में तिष्ठत शास्त्र का उपदेश सुनि भली भावना करि पुण्य उपजाय, सुफल के मोक्ता होय हैं । सो ऐसे भव्यात्मा को श्रोता कहिये। और कोई जीव शास्त्र का धर्मोपदेश सुनि, खोटी भावना करि पापके भोक्ता होय हैं सो अशुभ श्रोता कहिये। तातें बुरे-भलै दोय जाति श्रोतानि का कथन किया। इति शुभाशुम श्रोतानि का कथन स्वभाव सम्पूर्णम् ।
अब आठ गुण भौतानि में होई सो अपना भला करै, सोई कहिये हैं। गाषा-वांछा सवागहणं, घारण सम्मण पुच्छ उत्तराये। णित्रय ए व सुभेये, सोता गुण एव मुग सिव देई ॥२॥
अर्थ-वांछा कहिये चाह। सवरा कहिये सुनना। गहण कहिये ग्रहण करना। धारण कहिये धारना।
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