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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
४१ विधि-विधान बने। जैन तीर्थङ्कर तो वीतराग था अत: वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, फलत: जैनों ने यक्ष-यक्षियों या शासन-देवता को भक्तों के कल्याण की जवाबदारी देकर अपने को युग-परम्परा के साथ समायोजित कर लिया।
इसी प्रकार भक्तिमार्ग का प्रभाव भी इस युग में जैन संघ पर पड़ा। तन्त्र एवं भक्तिमार्ग के संयुक्त प्रभाव से जिन-मन्दिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार के कर्मकाण्ड अस्तित्व में आये। वीतराग जिन-प्रतिमा की हिन्दू परम्परा की षोडशोपचार पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की जाने लगी। न केवल वीतराग जिन-प्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से सुसज्जित किया गया, अपितु उसे फल-नैवेद्य आदि भी अर्पित किये जाने लगे। यह विडम्बना ही थी कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा-पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा नवग्रह आदि के साथ-साथ तीर्थङ्कर या सिद्ध परमात्मा का भी आह्वान और विसर्जन किया जाने लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बर परम्परा में अधिक आया था किन्तु दिगम्बर परम्परा भी इससे बच न सकी। विविध प्रकार के कर्मकाण्ड और मन्त्र-तन्त्र का प्रवेश उनमें भी हो गया था, जिन-मन्दिर में यज्ञ होने लगे थे। श्रमण परम्परा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी धर्म व्यवस्था का परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध और शूद्र-जल त्याग पर बल दिया गया।
यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक समर्थ जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परम्परा में सहगामी अन्य धर्म परम्पराओं से जो प्रभाव आ गये थे, उनसे उसे मुक्त करने का कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। यद्यपि सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों के आधार पर श्वेताम्बर परम्परा में तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि अस्तित्व में आये और उनकी शाखा-प्रशाखाएँ भी बनीं, फिर भी लगभग १५वीं शती तक जैन संघ इसी स्थिति का शिकार रहा। मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान
____ यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं सुविधावाद का युग था, फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में जैनों ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो श्रवणबेलगोल, आबू (देलवाड़ा), तारंगा, रणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और स्थापत्य कला जो ९ वीं शती से १४ वीं शती के बीच में निर्मित हुई, आज भी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की रचनाएँ भी इन्हीं शताब्दियों में हुईं। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसरि, हेमचन्द्र, मणिभद्र, मल्लिसेन, जिनप्रभ आदि आचार्य एवं दिगम्बर परम्परा में विद्यानन्दी, शाकटायन, प्रभाचन्द्र जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल के हैं। मन्त्र-तन्त्र के साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आये। इस युग के भट्टारकों और जैन यतियों ने साहित्य एवं कलात्मक मन्दिरों का निर्माण तो
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