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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास लगे थे। अभिलेखों से तो यहाँ तक सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिये भी संभ्रान्त वर्ग से दान प्राप्त किये जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन साधु मठाधीश बन गये थे। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के द्वारा जैन दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में हुआ उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यद्यपि इस चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में हुआ। दिगम्बर परम्परा में चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का विरोध सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के 'अष्टपाहुड'(लिंगपाहुड १-२२) में प्राप्त होता है। उनके पश्चात् आशाधर, बनारसीदास आदि ने भी इसका विरोध किया। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र ने इसके विरोध में लेखनी चलायी। ‘सम्बोधप्रकरण' में उन्होंने इन चैत्यवासियों के आगम विरुद्ध आचार की खुलकर अलोचना की, यहाँ तक कि उन्हें नरपिशाच भी कह दिया। चैत्यवास की इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि आदि खरतरगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की। ईस्वी सन् की दसवीं शताब्दी में खरतगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास के विरोध में हुआ था, जिसका प्रारम्भिक नाम सुविहित मार्ग या संविग्न पक्ष था। दिगम्बर परम्परा में इस युग में द्रविड़ संघ, माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, जिन्हें दर्शनसार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया ।
इस सम्बन्ध में पं० नाथूरामजी 'प्रेमी' ने अपने ग्रन्थ 'जैन साहित्य और इतिहास में 'चैत्यवास और वनवास' नामक शीर्षक के अन्तर्गत विस्तृत चर्चा की है । फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहना कठिन है कि इन विरोधों के बावजूद जैन संघ इस बढ़ते हुए शिथिलाचार से मुक्ति पा सका। फिर भी यह विरोध जैनसंघ में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों के उद्भव का प्रेरक अवश्य बना। तन्त्र और भक्तिमार्ग का जैनधर्म पर प्रभाव
वस्तुत: गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी तक का युग पूरे भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के ह्रास और ललित कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब खजुराहो और कोणार्क के मन्दिरों में कामुक अंकन किये गये। जिन मन्दिर भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। यही वह युग है जब कृष्ण के साथ राधा
और गोपियों की कथा को गढ़कर धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी काल में तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हुआ,जिसकी अग्नि में बौद्ध भिक्षु संघ तो पूरी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षु संघ भी उसकी लपटों की झुलस से बच न सका। अध्यात्मवादी जैनधर्म पर भी तन्त्र का प्रभाव आया। हिन्दू परम्परा के अनेक देवी-देवताओं को प्रकारान्तर से यक्ष, यक्षी अथवा शासन देवियों के रूप में जैन देवमण्डल का सदस्य स्वीकार कर लिया गया। उनकी कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिये अनेक तान्त्रिक
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